Last Updated on 16 May 2024 by nidariablog.com
दिलीप कुमार – अमर अभिनेता। मानव विभिन्न परिस्थितियों को असल जीवन में जीते हुए भी अक्सर अपनी बात और भावों को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त नहीं कर पाता। तब एक फिल्मी कलाकार के लिए एक काल्पनिक पात्र को रजतपट पर अपने अभिनय से जीवंत कर पाना कितना मुश्किल काम है इसका अनुमान आसानी से नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में कोई विरला ही अलग-अलग किरदारों की भूमिकाओं को पर्दे पर इतनी खूबी से निभा सकता है कि दर्शक उसके अभिनय के दीवाने हो जाएँ।
फोटो क्रेडिट – Wikimedia Commons, https://creativecommons.org/licenses/by-sa/4.0/
‘अभिनय सम्राट’, ‘ट्रेजडी किंग’ और ‘देवदास’ के नामों से मशहूर दिलीप कुमार एक दिग्ग्ज अभिनेता थे।
अपने सशक्त अभिनय से विविध रसों को सिनेमा के पर्दे पर साकार करने वाले ‘अभिनय सम्राट’ और ‘ट्रेजडी किंग’ के नामों से विख्यात दिलीप कुमार ऐसे ही महान अभिनेता थे। सिनेमा जगत में दिलीप साहब को अपना आदर्श मानने वाले कलाकारों की सूची काफी लम्बी है। यदि यह कहा जाए कि वे फिल्म जगत के ऐसे स्तंभ थे जिन्होंने अपनी अद्भुत अभिनय क्षमता के जरिए फिल्मों के प्रति लोगों में दिलचस्पी को विकसित किया और अभिनय कला को नए आयाम दिए तो गलत नहीं होगा। उनके अभिनय की जितनी भी तारीफ की जाए, कम है। शुरू से ही उनमें अन्य कलाकारों से हटकर कुछ ऐसा रहा जिसने उन्हें हिंदी सिनेमा का सार्वकालिक बेहतरीन अभिनेता बना दिया।
किस तरह हुआ हिंदी सिनेमा जगत में दिलीप कुमार नाम के एक सितारे का प्रवेश?
चुम्बकीय व्यक्तित्व और सहज एवं शांत प्रकृति के धनी दिलीप कुमार का जन्म 11 दिसम्बर 1922 को पेशावर के खुदाबाद मौहल्ले में हुआ। उनके पिता लाला गुलाम सरवर फलों के व्यापारी थे। पेशावर और देवलाली (महाराष्ट्र) में उनके फलों के बाग़ थे। 1930 में पूरा परिवार मुम्बई आ गया। 1940 के आसपास दिलीप कुमार पूना चले गए और वहाँ फलों के व्यवसाय के साथ-साथ एक मिलीटरी कैंटीन में नौकरी करने लगे। उन दिनों अपने समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी और उनके पति हिमांशु राय, जो बॉम्बे टाकीज के मालिक थे, की नज़र उन पर पड़ी और उन्होंने दिलीप कुमार को 1944 में बनी अपनी फिल्म ज्वार-भाटा में मुख्य भूमिका प्रदान की। और इस तरह फिल्म जगत में एक ऐसे सितारे का प्रवेश हुआ जिसने अपनी चमक से एक सुनहरे युग का आग़ाज़ किया और पाँच दशकों तक अभिनय के क्षेत्र में कई कीर्तिमान और मानदंड स्थापित किए।
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कैसा रहा दिलीप कुमार साहब का फिल्मी सफर?
उनका असली नाम मौहम्मद युसुफ खान था। ‘दिलीप कुमार’ नाम तो उन्हें देविका रानी ने भगवती चरण वर्मा और नरेंद्र शर्मा जैसे साहित्यकारों से परामर्श करके दिया। नूरजहाँ के साथ 1944 में बनी ‘जुगनु’ उनकी पहली हिट फिल्म साबित हुई। इसके बाद तो उन्होंने एक के बाद एक कई सफल, हिट और यादगार फिल्में दीं जैसे जोगन, दीदार, आन, दाग़, देवदास, आज़ाद, नया दौर, यहूदी, मधुमती, पैगाम, कोहेनूर, राम और श्याम, लीडर, मुग़ल-ए-आज़म, गंगा जमुना, दिल दिया दर्द लिया, संघर्ष, शक्ति, क्रांति आदि। देवदास की भूमिका को उन्होंने इतनी शिद्दत से निभाया कि पचास के दशक में वे देवदास के नाम से भी जाने गए। दिलीप साहब ने अपने समय की सभी शीर्ष अभिनेत्रियों जैसे नरगिस, कामिनी कौशल, निम्मी, मीना कुमारी, मधुबाला, वैजयंती माला, वहीदा रहमान आदि के साथ पर्दे पर शानदार जोड़ियाँ बनाईं।
अपने आप में अभिनय की संपूर्ण पाठशाला थे दिलीप कुमार साहब।
दिलीप साहब ने अंतिम बार ‘क़िला’ फिल्म में अभिनय किया। वे अभिनय की बारीकियों का किरदार की भूमिका निभाने में बखूबी इस्तेमाल किया करते थे। संवाद बोलने के अपने अनूठे अंदाज़ तथा हाव-भाव और सशक्त बॉडी लैंग्वेज के बूते वे अपने सामने के कलाकार पर भारी पड़ते थे। हालाँकि शुरू में उन्होंने अधिकतर दुखभरी भूमिकाएं ही कीं, लेकिन बाद में हास्य और चरित्र अभिनेताओं की भूमिकाओं को भी बड़ी सहजता और उत्कृष्टता से पर्दे पर जिया। वे फिल्मों का चयन अपनी मर्ज़ी से करते थे तभी तो वे जो भी किरदार चुनते उसमें पूरी तरह डूब जाते थे। यदि यों कहें कि वे उस किरदार को ही अपने भीतर उतार लेते थे तो भी ग़लत नहीं होगा। शायद यही वजह रही कि दिलीप साहब ने दूसरे सफल कलाकारों की बनिस्बत लगभग 60 फिल्मों में ही काम किया। उनके अभिनय की विशेष बात यह थी कि ऐसा नहीं लगता था जैसे वे अभिनय कर रहे हैं। कई दशकों के बीत जाने के बाद भी उनकी अभिनीत फिल्मों को देखकर मन को अनुपम संतोष मिलता है।
दिलीप कुमार साहब ने कुछ वर्षों तक फिल्मों से विराम लेने के बाद फिल्म ‘क्रांति’ से की ज़बर्दस्त वापसी।
उन्होंने अपनी जीवन संगिनी सायरा बानो, जो उम्र में उनसे 22 वर्ष छोटी थीं, के साथ ‘गोपी’, ‘सगीना’, ‘बैराग’ और ‘दुनिया’ फिल्मों में काम किया लेकिन ‘गोपी’ को छोड़कर बाकी तीनों फिल्में ज़्यादा सफल नहीं रहीं। दिलीप साहब ने 1976 से 1981 तक लगभग पाँच सालों के लिए फिल्मों से विराम लिया और फिर मनोज कुमार द्वारा बनाई ‘क्रांति’ से फिल्मों में एक बार फिर अभिनय की नई बुलंदियों को छुआ। उसके बाद उन्होंने विधाता, शक्ति, कर्मा और सौदागर आदि फिल्मों में अपना रंग जमाया। सदी के महानायक कहे जाने वाले अभिनेता, अमिताभ बच्चन के साथ जब उन्होंने ‘शक्ति’ फिल्म में काम किया, उस समय अमिताभ बच्चन एक सुपर स्टार थे और दर्शकों के मनपसंद थे तो भी दिलीप साहब ने अपने सशक्त अभिनय से लोगों का दिल जीत लिया और फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए उस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता चुने गए।
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हर किरदार को अपने भीतर उतार लेते थे दिलीप कुमार साहब।
उनके निभाए बहुचर्चित किरदारों में के. आसिफ की ऐतिहासिक फिल्म ‘मुग़ले आज़म’ में शहज़ादा सलीम (मुग़ल राजकुमार जहाँगीर) की भूमिका थी जिसे दिलीप साहब ने बखूबी निभाया। फिल्म ‘राम और श्याम’ में मन को आंदोलित करने वाली उनकी दोहरी भूमिका को भला कौन भुला सकता है। इसी प्रकार ‘आदमी’ फिल्म में एक अपाहिज पात्र के भीतर के आक्रोश को दिलीप साहब ने अपनी अनूठी अभिनय कला से बड़ी खूबी से पर्दे पर जिया। वे आज भी सिने जगत में अन्य कलाकारों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
दिलीप कुमार साहब और रफी साहब की जोड़ी ने दिए कई सुपर हिट गीत।
फिल्मों में दिलीप साहब के शुरूआती दौर में मुकेश और तलत महमूद ने उनके लिए कई गीत गाए। किशोर कुमार और महेंद्र कपूर ने भी उनके लिए चंद गीत गाए। लेकिन उनके लिए अधिकांश गीत गाए मौहम्मद रफी ने। मौहम्मद रफी की आवाज़ तो उनपर एकदम फिट बैठती थी। दिलीप साहब ने रफी साहब के गाए गीतों – ‘आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले’, ‘टूटे हुए ख्वाबों ने’, ‘ना आदमी का कोई भरोसा’, ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’, ‘अपनी आज़ादी को हम हर्गिज़ मिटा सकते नहीं’, ‘मुझे दुनिया वालो शराबी ना समझो’, ‘नैन लड़ जई हैं’, ‘तेरे हुस्न की क्या तारीफ़ करूं’, आदि को पर्दे पर इस तरह पेश किया जैसे वे इन्हें खुद ही गा रहे हों।
सर्वप्रथम और सर्वाधिक फिल्मफेअर अवार्ड्स जीतने वालों की सूची में दिलीप कुमार साहब का नाम है।
दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा के इतिहास में महानतम कलाकारों में से थे। उन्होंने दाग़, आज़ाद, देवदास, नया दौर, कोहेनूर, लीडर, राम और श्याम एवं शक्ति फिल्मों में उत्कृष्ट अभिनय के लिए कुल 8 फिल्मफेअर पुरस्कार जीते। असल में हिंदी फिल्मों का सर्वप्रथम सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेअर पुरस्कार 21 मार्च 1954 को उन्हें ही मिला, फिल्म दाग़ के लिए। वे एकमात्र ऐसे अदाकार थे जिन्होंने लगातार तीन वर्षों (1955,1956 और 1957) के लिए ये पुरस्कार जीते।
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व्यक्तित्व के भी खूब धनी थे दिलीप कुमार साहब।
ऐसा नहीं है कि दिग्गज अभिनेता दिलीप कुमार साहब ने केवल फिल्मों में ही अपने जौहर दिखाए। उदार मानसिकता, सभी धर्मों के प्रति आदर और भाईचारे का भाव उनके व्यक्तित्व के अन्य दृड़ पहलू थे। उन्होंने जरूरत के समय लोगों को आर्थिक मदद देने में कभी कोताही नहीं बरती। देश की सांप्रदायिक एकता के लिए भी वे हमेशा आगे रहे। उनके सुलझे विचार, गंभीर व्यक्तित्व और सेवा भाव को देखते हुए उन्हें 1980 में बंबई (आजकल, मुम्बई) का शेरीफ नियुक्त किया गया। वे राज्य सभा के सदस्य भी रहे।
भारत सरकार और पाकिस्तान सरकार ने भी सम्मानित किया दिग्गज अभिनेता दिलीप कुमार साहब को।
सिनेमा में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए भारत सरकार ने 1991 में उन्हें पद्म भूषण और 1994 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया। 1993 में उन्हें फिल्मफेअर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड प्रदान किया गया। यही नहीं, पाकिस्तान सरकार ने भी 1997 में उन्हें अपने सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘निशान-ए-इम्तियाज़’ से नवाजा।
7 जुलाई 2021 को हुआ दिलीप कुमार साहब का निधन।
दिलीप कुमार साहब कुदरत का बेमिसाल करिश्मा थे। लंबी बीमारी से जूझने के बाद दिलीप कुमार साहब 7 जुलाई 2021 को एस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गए लेकिन भारतीय सिनेमा के इतिहास पर अपने अभिनय और व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ गए। उनके अभिनय और व्यक्तित्व की सुनहरी किरण सिने जगत में नवांगुतकों और आगे आने वाली कई पीढ़ीयों की राहों को हमेशा रौशन करती रहेगी।
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Bejor aur vishwa vikkhyaat mahan hastiyon k bare mein kuch kehna aur likhna ek bari chunoti hai. Author ne Dil ki gehraiyon se is challenge ka istaqbaal Kiya aur apni Kalam se marhoom Dilip saheb k bare mein ye khoobsurat article likha hai, Jo waqai tarif k layak hai. Author k liye dher sari shubhkamnayen !
“अमर अभिनेता दिलीप कुमार की तीसरी पुण्यतिथि 7 जुलाई 2024 पर श्रद्धांजली” लेख पर आपकी खूबसूरत टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।