अमर गायक मोहम्मद रफी की 44वीं पुण्यतिथि (31 जुलाई 2024) पर विशेष श्रद्धांजली

Last Updated on 27 April 2024 by nidariablog.com

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Mohammad Rafi 44th Death Anniversary (31 July 2024) Special

कैसे बने रफी साहब गायक

इस पृथ्वी पर समय-समय पर कई महापुरुषों/देवदूतों ने जन्म लिया है। 24 दिसंबर 1924 को भी एक देवदूत ने अमृतसर के कोटला सुल्तान सिंह में जन्म लिया, जिसका नाम आगे चलकर ‘स्वर सम्राट’, ‘ईश्वरीय आवाज’, ‘सुरों का जादूगर’, ‘शंहशाह-ए-तरन्नुम’ जैसे विशेषणों के साथ लिया जाने लगा।

उस शख़्शियत का नाम है मोहम्मद रफी, जिनकी मनमोहक और कर्ण प्रिय आवाज ने भारत के जन-जन के दिलो-दिमाग पर अपने जादूई करिश्मे की ऐसी छाप छोड़ी जो पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी बरकरार है और हमेशा रहेगी। एक इंटरव्यू के दौरान रफी साहब ने खुद बताया कि जब वे 12 साल के थे तब उनके गांव में सुबह के वक्त एक फकीर गाना गाते हुए पैसे मांगने आया करता था। रफी साहब को उनकी आवाज़ इतनी अच्छी लगती थी कि वे उस फकीर के पीछे पीछे काफी दूर तक चले जाते थे। उस फकीर की आवाज सुन सुनकर उन्हें गाने का ऐसा शौक हुआ कि गायन उनकी जिंदगी का जुनून बन गया और कालांतर में वे संगीत की दुनिया के बेताज़ बादशाह बन गए।

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रफी साहब की आवाज़ और उनका व्यक्तित्व

रफी साहब की आवाज किसी देववाणी से कम नहीं थी। उनके मधुकंठ से जो भी गीत गाया गया वो लोगों के दिलों दिमाग पर छा गया। उदार, निष्कपट, उपकारी और खुशदिल रफी साहब विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उनकी गायन शैली अमर, अकथनीय, अनुपम और अतुलनीय थी। अपने गायन काल में उन्होंने  तात्कालिक गायकों की तुलना में विविध प्रकार के गीतों को अपनी अलौकिक आवाज से नवाजा। रफी साहब के गाए गीतों को सुनकर संगीत प्रेमियों का रोम रोम पुलकित हो उठता है।

उन्होंने श्रृंगारिक, दर्द भरे और देशभक्ति के गीतों के अलावा कई भजन और ग़ज़लें भी गाईं। गीत की प्रकृति कैसी भी हो – शास्त्रीय, कव्वाली, ग़ज़ल अथवा पॉप, रफी साहब उसे निर्बाध रूप से गा देते थे। यह जानकर संगीत प्रेमियों को अचरज होता है कि स्वभावतः संकोची, अल्पभाषी और शर्मीले होने के बावजूद रफी साहब ने शम्मी कपूर और जितेंद्र जैसे शोख़ और चंचल कलाकारों के लिए किस प्रकार एक से एक मनचले और जोशीले गीत गा दिए। वास्तव में, ‘मन रे तू काहे ना धीर धरे’ (‘चित्रलेखा’, 1964) से लेकर ‘ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले’ (‘बैजू बावरा’, 1952) तक उनकी आवाज़ रामेश्वरम् से हिमालय पर्वत तक का सफर पूरा करते प्रतीत होती है।

रफी साहब बहुत उदार और मददग़ार इंसान थे। वे गाने के एवज में मिलने वाले पारिश्रमिक पर कभी मोल भाव नहीं करते थे। कोई जितनी फीस देता वे उसे चुपचाप रख लेते थे। उन्होंने कभी भी किसी से ज्यादा फीस नहीं ली बल्कि यदि किसी ने ज्यादा फीस देने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी फीस काट कर बाकी के पैसे वापस कर दिए। ऐसा महान व्यक्तित्व था उनका।

शादी-ब्याह में रफी साहब के गानों की धूम

रफी साहब ने जीवन के विभिन्न रंगों के गीत गाए। पिछले कई दशकों से लेकर आज तक भी शादी ब्याह के दौरान बारात निकलते वक्त उनके गाए सर्वकालिक हिट गीत ‘आज मेरे यार की शादी है’ (‘आदमी सड़क का’, 1977) और ‘बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है’ (‘सूरज’, 1966) बैंड पर बजाए जाते हैं। बारात में बैंड बाजे वालों द्वारा उनका गाया गीत ‘आज मेरे यार की शादी है’ बजाते ही पुरुष, महिलाएं और बच्चे-बूढ़े अपने आप को नाचने और थिरकने से रोक नहीं पाते और पूरा माहौल एक गर्म जोश और हर्षोल्लास से भर जाता है। अनके गाए गीतों ‘मेरा यार बना है दूल्हा’ (‘चौदहवीं का चाँद’, 1960) और ‘घोड़ी पे होके सवार’ (‘गुलाम बेग़म बादशाह’, 1973) का भी जवाब नहीं। दूसरी ओर, बेटी की विदाई के वक्त के लिए उनका गाया गीत ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ (‘नील कमल’, 1968) सुनते वक्त पत्थर का कलेजा भी मोम की तरह पिघल जाता है। इस गीत को सुनते समय कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अपने अश्रुपूरित नेत्रों को छिपा नहीं पाता।

भक्ति भाव की चरम सीमा को छूते रफी साहब के गाए भजन और गीत

भजनों की बात करें तो हिंदी फिल्मों में पुरुष गायको में शायद सबसे अधिक भजन रफी साहब ने ही गाए। उनके गाए भजनों को सुनकर परमानंद की अनुभूति होती है। ऐसा लगता है जैसे पूरा वातावरण एक मंदानिल और मनमोहक सुगंध से भर गया है। ‘बड़ी देर भाई नंदलाला तेरी  राह तके बृजबाला’ (‘खानदान’, 1965), ‘सुख के सब साथी दुख में न कोय’ (‘गोपी’, 1970), ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ (‘बैजू बावरा’, 1952), ‘मुझे अपनी शरण में ले लो राम’ (‘तुलसीदास’, 1954) या ‘दुनिया ना भाए मुझे अब तो बुला ले’ (‘बसंत बहार’, 1956), उनके गाए गीतों की सूची में एक से एक नायाब भजन शामिल हैं। चूंकि उनकी आवाज ईश्वरीय आवाज थी इसलिए उनके गाए भजन सुनकर परमात्मा से सहज ही जुड़ने का आभास होता है। ‘गंगा तेरा पानी अमृत कल कल बहता जाए’ (‘गंगा तेरा पानी अमृत’, 1971) गीत सुनते हुए जहां एक और गंगा मां के लिए अपार आदर भाव उमड़ पड़ता है वहीं दूसरी ओर ऐसा महसूस होता है जैसे कि गंगा साक्षात निरर्गल बह रही हो। सच में, रफी साहब जैसे किरदार का इस पृथ्वी पर जन्म लेना स्वप्न लोक के सच होने जैसा है।

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अदम्य जोश से भरे देशभक्ति के गानों को दी रफी साहब ने अपनी गरजती आवाज़ और होली के लिए गाए रंग और गुलाल भरे मधुर गीत

रफी साहब अपनी आवाज और गायन शैली को गीत की मांग के अनुसार ढालने में पारंगत थे। देशभक्ति के गीतों को रफी साहब ने ऐसे जोशो-खरोश से गाया कि उनके गाए गीतों ‘कर चले हम फिदा जानो तन साथियो’ (‘हक़ीकत’, 1964), ‘अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं’ (‘लीडर’, 1964), ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ (‘शहीद’, 1965) और ‘अब कोई गुलशन ना उजड़े अब वतन आज़ाद है’ (‘मुझे जीने दो’, 1963) को सुनकर पैरों के नख से लेकर सर के बालों तक झनझनाहट पैदा हो जाती है। वर्षा ऋतु में काले घुमड़ते मेघ जिस प्रकार भीषण गर्जन करते हैं वही गर्जना रफी साहब के गाए देशभक्ति के गीतों में सुनाई पड़ती है। 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस के दिन रफी साहब द्वारा गाए देशभक्ति के गीत आज भी पवन रथ पर सवार होकर पूरे वायुमंडल और धरातल को देशप्रेम के जज़्बे से सराबोर कर देते हैं। इसी प्रकार, होली के दिन जब उनके गाए गीत ‘तन रंग लो जी आज मन रंग लो’ (‘कोहिनूर’, 1960) और ‘बिरज में होरी खेलत नंदलाल’ (‘गोदान’, 1963) कानों को सुनाई पड़ते हैं तो ऐसा लगता होता है जैसे चारों ओर रंग और गुलाल की बारिश हो रही है और सभी लोग होली के रंगों में रंगकर मंत्र मुग्ध हो नृत्य कर रहे हैं। मन हिलोरें भरने लगता है और एक अद्भुत जोश और आनंद में डूब जाता है, ठीक उसी प्रकार जैसे लहरें उठकर सागर में विलीन हो जाती हैं।

भावनाओं का समुंदर गहराया था रफी साहब की रूह को छू लेने वाली आवाज़ में

फिल्म ‘सीमा’ (1971) के गीत ‘जब भी ये दिल उदास होता है’ या ‘दुलारी’ (1949) फिल्म के गीत ‘सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे’ में रफी साहब की आवाज़ मन में एक अजीब सा एकाकीपन, उद्विग्नता और किसी प्रिय से जुदा होने की चुभन का एहसास पैदा करती है। उनकी कशिश भरी आवाज़ अंतर्मन की गहराईयों तक पहुँच जाती है। दूसरी ओर, प्रकृति के किसी सुंदरतम, रमणीक और मनोरम दृश्य को देखने से जो कोमल भाव मन में उत्पन्न होता है, वही भाव रफी साहब के गाए श्रृंगारिक गीतों ‘पास बैठो तबीयत बहल जाएगी’ (फिल्म ‘पुनर्मिलन’ 1964), ‘ऐसे तो ना देखो, के हमको नशा हो जाए’ (फिल्म ‘तीन देवियाँ’, 1965) या ‘छू लेने दो नाज़ुक होठों को’ (फिल्म ‘काजल’, 1965) को सुनते वक़्त पैदा होता है। ऐसी ग़ज़ब की फ़नकारी थी उनकी गायकी में, जिसे बयाँ करने के लिए शब्दों का चुनाव करते वक़्त संघर्ष करना पड़ता है लेकिन फिर भी जितना महसूस होता है शब्द उतना कह नहीं पाते। इसलिए, उनके गाए गीतों को सुनने से पैदा हुए नाज़ुक भावों को बयाँ करने के लिए उदाहरणों का सहारा लेना पड़ता है।

रफी साहब के गाने बजाए बिना आज भी नहीं मनते जन्मदिन

रफी साहब की आवाज़ आज भी भारत के तीज-त्योहारों और भारतवासियों के देश प्रेम, उनकी संवेदनाओं और अंतर्मनों को छू लेने वाली आवाज़ है। अवसर चाहे खुशी या रोमांस का हो अथवा दर्द, ग़म या विरह का, रफी साहब ने सभी प्रकार के गीत पूरी शिद्दत से गाए। रफी साहब की आवाज़ का जादू इस कदर सर चढ़कर बोलता है कि आज भी जन्मदिन मनाते समय उनका गाया गीत ‘बार-बार दिन ये आए बार-बार दिल ये गाए’ (‘फ़र्ज़’, 1967) हर घर में गाया-बजाया जाता है। इसी प्रकार ‘ओ नन्हे से फरिश्ते तुझसे ये कैसा नाता’ (‘एक फूल दो माली’, 1969) और ‘तारे, तारे कितने नील गगन पे तारे’ (‘आप आए बहार आई’, 1971) गीतों को सुनते ही हर स्त्री-पुरुष का ह्रदय स्वतः ही स्नेह और प्रेम भाव से भर जाता है।

सुपर स्टार अभिनेताओं से लेकर हास्य अभिनेताओं और खलनायकों, सभी के लिए रफी साहब ने गीत गाए

रफी साहब ने अपने कैरियर के दौरान उस जमाने के लगभग सभी कलाकारों पर फिल्माए गीतों को अपनी आवाज दी। विशेषकर, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजेंद्र कुमार, धर्मेंद्र, जितेंद्र और राजेश खन्ना जैसे सुपर स्टार कलाकारों  के लिए उन्होंने कई गीत गाए। इन गीतों को पर्दे पर देखते हुए ऐसा लगता है जैसे ये कलाकार खुद अपनी आवाज़ में गा रहे हैं। यही खूबी थी रफी साहब की जादुई आवाज़ में। यहां तक की उन्होंने हास्य अभिनेताओं महमूद, जानी वाकर और आग़ा के लिए भी कई हिट गीत गाए। ‘हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं’ (‘गुमनाम’, 1965), ‘सर जो तेरा चकराए’ (‘प्यासा’, 1957), ‘जंगल में मोर नाचा’ (‘मधुमती’, 1958), ‘मेरा यार बना है दूल्हा’ (‘चौदहवीं का चाँद’, 1960), ‘हम भी अगर बच्चे होते’ (‘दूर की आवाज़’, 1964) और ‘मैंने रखा है मोहब्बत अपने दीवाने का नाम’ (‘शबनम’, 1949) गीतों की याद भुलाए नहीं भूलती। खलनायकों की बात करें तो महान प्राण साहब के लिए रफी साहब ने ‘है काम आदमी का औरों के काम आना’ (‘अधिकार’, 1971) और ‘राज की बात कह दूं तो’ (‘धर्मा’, 1973) जैसे सुपरहिट गीत गाए। बात दोस्ती की हो तो उनके गाए गीतों ‘कोई जब राह ना पाए मेरे संग आए’ (‘दोस्ती’, 1964) और ‘एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तो’ (ग़बन’, 1966) का उल्लेख किए बिना रहा नहीं जा सकता। गायन के क्षेत्र में रफी साहब का योगदान अमूल्य, अद्वितीय और अवर्णनीय है। वास्तव में, रफी साहब की जादुई आवाज ने हर पीढ़ी के स्थापित और नवोदित गायकों को भी प्रेरणा और मार्गदर्शन दिया है।

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रफी साहब के मधुरतम गीतों की सूची बनाना आसान काम नहीं

रफी साहब का सम्पूर्ण चरित्र और उनकी मानवीय संवेदनाओं की अद्भुत समझ उनकी बहुरंगी आवाज में चरितार्थ होती थी। उनके गाए श्रुतिमधुर गीतों में ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया’, ‘दिन ढल जाए हाए रात ना जाए’, ‘नफरत की दुनिया को छोड़कर’, ‘परदेसियों से ना अखियां मिलाना’, ‘खुदा भी आसमाँ से जब जमीं पर’, ‘ये वादियाँ ये फिजाएँ बुला रही हैं तुम्हें’, ‘तेरी आंखों के सिवा दुनिया में’, ‘ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं’, ‘सुहानी रात ढल चुकी’, ‘दिल का भंवर करे पुकार’, तेरे बिन सूने नयन हमारे’, ‘चाहूंगा मैं तुझे साँझ सवरे’ ‘तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे’, ‘तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं’, आदि गीत शामिल हैं। तथापि, उनके गाए गीतों में से चुनिंदा मनपसंद गीतों की सूची बनाना कतई सम्भव नहीं है क्योंकि उनके गाए गीत-भंडार में एक से बढ़कर एक पसंदीदा, लुभावने और मादक गीत शामिल हैं।

रफी साहब ने अपने गायन काल में उस समय की सभी मशहूर गायिकाओं के साथ एक से एक हिट युगल गीत गाए

रफी साहब पर विद्या और वाणी की अधिष्ठात्री देवी, सरस्वती की असीम अनुकंपा थी। वे हर एक गीत को इतनी सरलता, सहजता और बखूबी अंदाज में गा देते थे जैसे उन्हें कोई विशेष चामत्कारिक सिद्धि या ईश्वरीय वरदान प्राप्त हो। श्रृंगारिक गीत गाते समय वे दुनिया भर का प्यार और स्नेह अपनी आवाज़ में घोल लेते थे। वहीं देशभक्ति के गीत गाते समय वे अपनी आवाज़ में अंगार और ओज भर लेते थे। रफी साहब ने अपने समय की सभी मशहूर गायिकाओं जैसे लता मंगेशकर, आशा भोंसले, सुमन कल्याणपुर, गीता दत्त, सुरैया, शमशाद बेगम आदि के साथ ढेरों सुपर हिट युगल गीत भी गाए।

आजकल की पीढ़ी भी बच नहीं पाई फ़नकार रफी साहब की कालजयी आवाज़ के जादू से

रफी साहब की कालजयी गायन कला के जादू से आजकल की पीढ़ी भी अछूती नहीं रह पाई। फिल्म ‘प्रिंस’ और ‘तीसरी मंज़िल’ के लिए उनके गाए गीतों क्रमशः `बदन पे सितारे लपेटे हुए’ और ‘ओ हसीना ज़ुल्फों वाली’ को भले ही लगभग 6 दशक बीत गए हैं किंतु आज भी इन गीतों पर युवाओं और युवतियों को डीजे पर पूरे जोशो-खरोश के साथ नाचते-थिरकते देखा जाता है।

संगीत जगत में रफी साहब की आवाज़ और गायकी का सभी मानते हैं लोहा

अलग-अलग अवसरों पर कई अन्य नामी-गिरामी और दिग्गज गायकों, संगीतकारों और गीतकारों जिनमें फिल्मी और गैर फ़िल्मी हस्तियां शामिल हैं, ने रफी साहब की बहुआयामी प्रतिभा का लोहा मानते हुए उनके प्रति अत्यंत आदर का भाव प्रकट किया है। उनका मानना है कि रफी साहब की तरह बहुमुखी गीत गा पाना अन्य गायकों के वश की बात नहीं। इन साक्षात्कारों की वीडियो क्लिप्स इंटरनेट द्वारा यूट्यूब पर आसानी से देखी जा सकती हैं।

रफी साहब ने कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में गीत गाए

रफी साहब ने केवल हिंदी ही नहीं अपितु कई अन्य भारतीय और विदेशी भाषाओं जैसे पंजाबी, तेलुगू, बंगाली, मराठी, अरबी, अंग्रेजी आदि आदि में भी गीत गाए। फ़िल्मों के अलावा उन्होंनें कई ग़ैर फ़िल्मी गीत, भजन और क़व्वालियाँ भी गाईं। उनके गाए गीतों के अनगिनत चहेते और प्रशंसक दुनियाभर में फैले हुए हैं।

रफी साहब के मनपसंद शौक़

मोहम्मद रफी साहब को अपने खाली समय में बैडमिंटन और कैरम खेलना पसंद था। भोजन में उन्हें घर का बना हुआ खाना बहुत अच्छा लगता था। वे चाय पीने के भी बहुत शौकीन थे। कहते हैं कि वे जब भी गानों की रिकॉर्डिंग या रिहर्सल के लिए स्टुडिओ जाते थे तो अपने साथ थर्मस में घर की बनी स्पेशल चाय अपने साथ अवश्य लेकर चलते थे।

गायन के प्रति समर्पण और अल्लाह की शुक्रगुज़ारी

गायन के प्रति रफी साहब इस कदर समर्पित थे कि उन्होंने कभी भी किसी गीतकार, संगीतकार या फिल्म निर्माता को गाने के लिए मना नहीं किया। ना ही कभी गायन के प्रस्ताव को इसलिए ठुकराया कि संगीतकार या पर्दे पर किरदार निभाने वाला कलाकार जूनियर था। वे सबके प्रति समभाव रखते थे। वहीं, अपने सम्पूर्ण गायन कैरियर के दौरान रफी साहब अपनी गायकी को हमेशा अल्लाह का आशीर्वाद मानते रहे और अपने कैरियर के चर्मोत्कष पर भी अपनी गायन कला का क्रेडिट नहीं लिया।

भारत रत्न के प्रबल हक़दार हैं रफी साहब

सिने जगत के “स्वर्ण युग” में मोहम्मद रफी साहब का योगदान अमूल्य रहा है। रफी साहब की आकाशीय आवाज़ और उनका अनुपम और बेजोड़ हुनर गीत-संगीत प्रेमियों को पिछले लगभग ८० वर्षों से विस्मित एवं आनंदित होने का अनुभव देता रहा है और आगे भी देता रहेगा। उन्होंने भारतीय संस्कृति, तीज त्यौहारों और देशप्रेम की भावना को अपनी चामत्कारिक गायन कला और रूहानी आवाज़ के द्वारा जन-जन तक पहुंचाया है। जिनका सम्पूर्ण जीवन ही संगीत का पर्याय बन गया, ऐसे महान व्यक्तित्व को ‘भारत रत्न’ सम्मान से वंचित रखना बिल्कुल इस प्रकार है जैसे सुरों को वाद्य-यंत्रों से अलग कर दिया जाए। वास्तव में, उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत-रत्न से नवाज़ना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली और उनके द्वारा संगीत के क्षेत्र में भारतवर्ष की सेवा के प्रति असली अभिस्वीकृति होगी, मरणोपरांत ही सही।

रफी साहब की अंतिम यात्रा के वक़्त संगीत जगत में छा गया था सन्नाटा

फिल्म ‘पवित्र पापी’ के लिए रफी साह्ब के गाए गीत की पंक्तियाँ उनके जीवन चरित्र पर एकदम फिट बैठती हैं – ‘कभी कभी इस दुनिया में यारो, ऐसे फरिश्ते भी आते हैं; किसी को अपना सब कुछ देके, खाली हाथ चले जाते हैं; जैसे सुख की छाया दे के, बादल जाए बिखर…..।’ रफी साहब अपनी सुरीली और मखमली आवाज़ की महक चारों दिशाओं में बिखेरकर 31 जुलाई 1980 को मात्र 55 वर्ष की आयु में इस संसार से हमेशा के लिए विदा लेकर चले गए। उनकी आकस्मिक मृत्यु दिल का दौरा पड़ने से हुई। उनके इंतकाल की खबर सुनते ही पूरे संगीत जगत में ऐसी खामोशी छा गई मानो उनके सम्मान में सातों सुर मौन हो गए हों। वे अपने पीछे अपनी सदाबहार आवाज़ में गाए हज़ारों अनमोल गीतों का अक्षय खजाना हम सब के लिए छोड़ गए। कहा जाता है कि उनकी अंतिम यात्रा में लगभग 10,000 से भी ज्यादा लोग सम्मिलित हुए थे। उनके निधन से हिंदी सिनेमा में जो रिक्तता पैदा हुई है उसकी पूर्ति की संभावना कल्पनातीत है।

रफी साहब की आवाज़ और सुरों का समूह “सरगम” एक दूसरे के पूरक हैं। जब तक इस ब्रह्मांड में संगीत रहेगा तब तक रफी साहब की आवाज़ मौसिक़ी की दुनिया को गौरांवित महसूस कराती रहेगी।

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